ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध प्रमुख विद्रोह

Rajesh kumar
3 min readDec 30, 2020

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मोआमरिया विद्रोह (1769–99):

1769 में मोआमरिया द्वारा किया गया विद्रोह असम के अहोम राजाओं की सत्ता के लिए एक प्रबल चुनौती थी। मोआमरिया निम्न-जाति के किसान थे, जो अनिरुद्धदेव (1553–1624) की शिक्षाओं का पालन . करते थे और उनका उत्थान उत्तर भारत में अन्य निम्न जातियों के समूहों के समान था। उनके विद्रोह ने अहोम को कमजोर किया और अन्य के लिए इस क्षेत्र पर हमला

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करने का मार्ग प्रशस्त किया। उदाहरणार्थ, 1792 में, दरांग के राजा (कृष्ण नारायण) ने, जिसमें उसकी सहायता उसके बुर्कान्देज दल (मुसलमान सेनाओं एवं जमींदारों की सेनाओं से मुक्त सिपाही) ने की, विद्रोह कर दिया। इन विद्रोहों का दमन करने के लिए, अहोम शासकों को ब्रिटिश सहायता की प्रार्थना करनी पड़ी। मोआमरिया ने भाटियापर को अपना मुख्यालय बनाया। रंगपुर एवं जोरहाट बेहद प्रभावित क्षेत्र थे। यद्यपि, अहोम साम्राज्य ने स्वयं को विद्रोह से बचा लिया, लेकिन इससे यह कमजोर हो गया और बर्मा के आक्रमण के आगे घुटने टेक दिए तथा अंततः इस पर ब्रिटिश शासन का आधिपत्य हो गया।

गोरखपुर, बस्ती एवं बहराइच में नागरिक विद्रोह (1781):

वारेन हेस्टिंग्ज ने, मराठाओं एवं मैसूर के युद्धों के खर्चों को पूरा करने के लिए, अवध में अंग्रेजी अधिकारियों को इजारेदार (राजस्व किसान) के तौर पर शामिल करके धन अर्जित करने की योजना बनाई। उसने मेजर एलेक्जेंडर हाने, जो उस क्षेत्र से भली-भांति परिचित था, को 1778 में इजारेदार के रूप में नियुक्त किया। हाने ने गोरखपुर एवं बहराइच के लिए एक वर्ष हेतु इजारे की राशि 22 लाख रुपए सुनिश्चित की। वास्तव में, यह कंपनी का गुप्त प्रयोग था, जिससे वह यह निश्चित करना चाहती थी कि, ऐसा करके वह व्यवहारिक रूप से कितनी मात्रा में अधिशेष धनराशि प्राप्त कर सकती थी। हालांकि, हाने के अत्याचार एवं राजस्व की अत्यधिक मांग ने क्षेत्र को भयाक्रांत कर दिया, जो नवाब के शासनाधीन एक समृद्ध क्षेत्र था। 1781 में जमींदारों एवं किसानों ने असहनीय अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और प्रारंभिक विद्रोह के एक सप्ताह के भीतर हाने के सभी अधीनस्थ कर्मियों को या तो मार दिया गया या जमींदारी गुरिल्ला बल द्वारा बंधक बना लिया गया। यद्यपि विद्रोह को कुचल दिया गया, हाने को पदच्युत कर दिया गया और उसे बाध्यकारी रूप से इजारा बनाए रखा गया।

विजियनगरम के राजा का विद्रोहः

1758 में, अंग्रेजों और आनंद गजपतिराज विजियनगरम का शासक, ने संयुक्त रूप से उत्तरी सरकार से फ्रांसीसियों को बाहर करने के लिए एक संधि की। इस अभियान में वे सफल रहे, लेकिन अंग्रेजों, जैसाकि वे भारत में करते रहे, ने संधि की शर्तों को मानने से इंकार कर दिया। अंग्रेजों से निपटने से पर्व ही आनंद राजू की मृत्यु हो गई। ईस्ट इंडिया कंपनी ने विजियनगरम के राजा विजयरामराजू से तीन लाख रुपए की राशि की मांग की और उसे अपनी सेना समाप्त करने को कहा। इस बात ने राजा को क्रोधित कर दिया, जैसाकि राजा के ऊपर कंपनी की कोई भी बकाया राशि नहीं थी। राजा ने अपने समर्थकों की सहायता से विद्रोह कर दिया। अंग्रेजों ने राजा को 1793 में बंदी बना लिया और उसे निर्वासित कर पेंशन पर भेजने का आदेश दिया। राजा ने यह बात मानने से इंकार किया। अंग्रेजों से लड़ते हुए पद्मनाभम (आंध्र प्रदेश में आधुनिक विशाखापतनम जिला) के युद्ध में 1794 में राजा की मृत्यु हो गई। विजियनगरम कंपनी शासन के अधीन आ गया। अंततः कंपनी ने मृतक राजा के पुत्र को राज्य सौंपा और भेंट की राशि की मांग को कम किया।

बेदनूर में धून्डिया का विद्रोह (1799–1800):

1799 में मैसूर विजय के पश्चात्, अंग्रेजों को विभिन्न स्थानीय नेताओं से लड़ना पड़ा। धून्डिया वाघ, एक मराठा स्थानीय नेता, जिसका टीपू सुल्तान ने मुस्लिम धर्म में धर्मान्तरण किया और जेल में डाल दिया, श्रीरंगपट्टनम के पतन के साथ जेल से छोड़ दिया गया। जल्द ही धून्डिया ने एक सेना तैयार कर ली, जिसमें ब्रिटिश शासन विरोधी तत्व शामिल थे, और स्वयं के लिए एक छोटा भू-क्षेत्र तैयार कर लिया।

अगस्त 1799 में मिली हार ने उसे मराठा क्षेत्र में शरण लेने को बाध्य किया जहां उसने निराश राजकुमारों को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एकजुट होने को प्रेरित किया और उसने स्वयं नेतृत्व की कमान संभाली। सितम्बर 1800 में, वेलेजली नेतृत्व में ब्रिटिश सेना के विरुद्ध युद्ध में वह मारा गया। यद्यपि धून्डिया असफल हो गया, वह जनता का सम्मानित राजा बन गया।

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